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उ॒त मे॑ प्र॒यियो॑र्व॒यियो॑: सु॒वास्त्वा॒ अधि॒ तुग्व॑नि । ति॒सॄ॒णां स॑प्तती॒नां श्या॒वः प्र॑णे॒ता भु॑व॒द्वसु॒र्दिया॑नां॒ पति॑: ॥

English Transliteration

uta me prayiyor vayiyoḥ suvāstvā adhi tugvani | tisṝṇāṁ saptatīnāṁ śyāvaḥ praṇetā bhuvad vasur diyānām patiḥ ||

Pad Path

उ॒त । मे॒ । प्र॒यियोः॑ । व॒यियोः॑ । सु॒ऽवास्त्वाः॑ । अधि॑ । तुग्व॑नि । ति॒सॄ॒णाम् । स॒प्त॒ती॒नाम् । श्या॒वः । प्र॒ऽने॒ता । भु॒व॒त् । वसुः॑ । दिया॑नाम् । पतिः॑ ॥ ८.१९.३७

Rigveda » Mandal:8» Sukta:19» Mantra:37 | Ashtak:6» Adhyay:1» Varga:35» Mantra:7 | Mandal:8» Anuvak:3» Mantra:37


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SHIV SHANKAR SHARMA

फिर उसी विषय को दिखलाते हैं।

Word-Meaning: - (सप्ततीनाम्) अतिगमनशील सदा चलनेवाले (तिसॄणाम्) तीनों भुवनों का और (दियानाम्) दाताओं का (पतिः) अधिपति पालक (श्यावः) सर्वव्यापी सर्वगत परमात्मा (उत+मे) मेरी (सुवास्त्वाः) निखिल शुभकर्म्मों की (अधि+तुग्वनि) समाप्ति-२ पर (प्रणेता) प्रेरक और (वसुः) वासदाता (भुवत्) होवे। जो मैं (प्रयियोः) उसी की ओर जा रहा हूँ और (वयियोः) सदा शुभकर्मों में आसक्त हूँ ॥३७॥
Connotation: - जो समस्त भुवनों का तथा सकल दाताओं का रक्षक परमात्मा है, वही भक्तों के शुभकर्मों की समाप्ति में सहायक होता है। अतः सर्वत्र वही उपास्यदेव है ॥३७॥
Footnote: यह अष्टम मण्डल का उन्नीसवाँ सूक्त और ३५ पैंतीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (उत) और (मे) जो मेरे लिये (प्रयियोः) प्रयाणशील अथवा चेष्टाश्रय (वयियोः) वानक्रियासिद्ध (सुवास्त्वाः) सुन्दर वास्तु=गृहतुल्य शरीर के (अधितुग्वनि) तीर्थरूप मध्य में “तुग्व तीर्थं भवति तूर्णमेतदायन्ति निरु० ४।१५।२०। द्विषष्टिपदेषु” (श्यावः) प्रकृत्याश्रित होकर (तिसॄणाम्) तीन (सप्ततीनाम्) सत्तर=दो सौ दस मुख्य नाड़ियों का (प्रणेता) निर्माता है (दियानाम्) वह नश्वर पदार्थों का “दीङ् क्षये अस्मात् छान्दसः कः” (पतिः) पालक परमात्मा (वसुः) अन्तःकरणवासी (भुवत्) हो ॥३७॥
Connotation: - इस मन्त्र का भाव यह है कि जो परमात्मा सहस्रों नस नाड़ीरूप तन्तुओं से शरीररूप पटमण्डप को विनकर इसको क्रियावान् बनाता और उसके मध्य में जीवात्मा की चेतनशक्ति को प्रविष्ट कर स्वयं भी अन्तःकरणरूप तीर्थ में निवास करता है, जो सकल कार्य्यरूप ब्रह्माण्ड को स्वाधीन रखनेवाला और सब जीवों को कर्मानुसार न्यायपूर्वक फल देनेवाला है, उसको अपने अन्तःकरण में खोजना चाहिये ॥३७॥ यह उन्नीसवाँ सूक्त और पैंतीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SHIV SHANKAR SHARMA

पुनस्तदेव दर्शयति।

Word-Meaning: - सप्ततीनाम्=सर्पणशीलानां सदागतीनाम्। तिसॄणाम्=तिसॄणां जगतीनाम्। पतिः=पालकः। पुनः। दियानाम्=दातॄणाञ्च पालकः। श्यावः=सर्वगतः परमात्मा। उत=अपि च। प्रयियोः=प्रयातुः। वयियोः=सदाकर्मासक्तस्य। मे=मम। सुवास्त्वाः=सुक्रियायाः। तुग्वनि+अधि=समाप्तौ। प्रणेता=प्रेरकः। वसुः=वासकश्च। भुवत्=भवतु ॥३७॥
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ARYAMUNI

Word-Meaning: - (उत) अथ (मे) मह्यम् (प्रयियोः) प्रयाणशीलस्य (वयियोः) वानक्रियानिष्पन्नस्य (सुवास्त्वाः) सुष्ठु गृहस्येव शरीरस्य (अधितुग्वनि) तीर्थ इव मध्ये (श्यावः) प्रकृत्याश्रितो भूत्वा (तिसॄणाम्) त्रिंसख्याकानाम् (सप्ततीनाम्) सप्ततिसंख्याकानाम् दशोत्तरद्विशत्यानाडीनां (प्रणेता) निर्माता (दियानाम्) नश्वरपदार्थानाम् (पतिः) पालकः (वसुः) अन्तःकरणवासी (भुवत्) भूयात् ॥३७॥ इति एकोनविंशतितमं सूक्तं पञ्चत्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥